आजकल दरवाजे दरवाजे किसानों के हमदर्द घूम रहे हैं, कभी वर्चुअल रैली में तो कभी एक्चुअल रैली में मेरे किसान भाइयों किसान भाइयों करके किसानों के इतने हमदर्द बनते हैं जैसे इस बार गेहूं कटवाने और भूसा ढुलवाने के लिए ये हमारे हमदर्द आकर हमारा हाथ बटाएंगे!
मेरे किसान भाइयों आज हमारी हालत इन्हीं सफेदपोशों के चक्कर में ऐसी हो गई है इनमें से अधिकतर ने अपने हाथ से कभी खेती की ही नहीं है! बस ये तो सैकड़ों योजनाओं के माध्यम से लाखों करोड़ों रुपया अधिकारी कर्मचारी और अपने जमूरों व दलालों के साथ मिलकर लूटते हैं और हमें तड़पाते देख खिलखिला कर हंसते हैं!
इन हमदर्दों के नंबर नोट कर लो और 10 मार्च के बाद लगाना देखो इनकी टोन बदल जाती है या वही रहती है!…अरे ढूंढे नहीं मिलेंगे ढूंढे…!
राजतंत्र में राजा से मिलना आसान था, लोकतंत्र में अधिकारियों और इन्हीं तथाकथित हमदर्द मंत्रियों के दरवाजे पर खड़े दरबान अंदर घुसने ही नहीं देंगे… क्योंकि अंदर से ही इशारा होता है मैले कुचैले धूल में सने गरीब किसानों को अंदर न आने देना! बस वही लूटने और लुटवाने वाले दलाल ठेकेदारी का ठप्पा लगाकर मिठाई के डिब्बे लेकर आएं तो उनकी गाड़ी भी अंदर आ जाने देना!
ऐसा लोकतंत्र जहां शासक और प्रशासक से आम आदमी के लिए मिलना ही दुश्वार हो किस काम का और आम आदमी चुनाव भी न लड़ पाए, वह दो करोड़ कहां से लाएगा!
दर्जनों किसान नेता और संगठन हैं जो अधिकतर शहरों के हैं जिनका भी मकसद कुछ और है उन्होंने भी कभी अपने हाथ से खेती नहीं की है..!
मेरे किसान भाइयों इन फर्जी हमदर्दों के चक्कर में, बहकावे में, झूठे वादों में फंसकर वोट न देना… यह बहुत चतुर हैं हमें एक किसान के नाम पर एक साथ नहीं रहने देंगे, जाति और धर्म में बाटेंगे.. ताकि हम अपना दर्द भूल कर आपस में ही बट जाएं, परंतु एक महीने बाद हमारी पीड़ा एक जैसी होगी और हमारी गिनती सिर्फ किसानों में होगी… इसलिए सोच समझ कर फैसला लेना नहीं तो 5 साल फिर पछताओगे…! सिर्फ और सिर्फ अच्छे आदमी जो ईमानदार और सादगी पसंद हो उसे वोट देना, नहीं तो नंबर मिलाते ही रहोगे… ढूंढते ही रहोगे… भ्रष्टाचार के शिकार होते ही रहोगे…!
— मोबीन गाज़ी कस्तवी