स्त्री… नारी….जोनाकी भट्टाचार्य।

रोहित सेठ

स्त्री ही पुरुष के उत्थान एवं पतन का कारण होती है, यह हम सब जानते हैं। परन्तु इसी के साथ ही किसी भी समाज के उत्थान एवं पतन का कारण तथा स्वयं स्त्री के उन्नति एवं अंत का कारक भी स्त्री ही होती है।

रामायण को हमलोग राम के पुरुषोत्तम होने के नाम से, राम की वीरता से, राम-रावण की शत्रुता के माध्यम से जानते हैं। परन्तु हमने कभी यह सोचा है की रामायण प्रचलित होने का असल कारण तो स्त्री है। रामायण बनने का कारक ही स्त्री है। मंथरा की कूटनीति, कैकयी का पुत्र मोह एवं लालच, सीता की सुन्दरता एवं अति गुणी होना, उर्मिला का त्याग, सुर्पनखा का राम के प्रति एकतरफा आकर्षण, यही सब रामायण के निर्माण का कारक हैं। ठीक इसी तरह माहभारत को हम कृष्ण के गीता, कौरव-पाण्डव का युद्ध जो कुरुक्षेत्र में हुआ था, इसके द्वारा जानते हैं। परन्तु इस युद्ध का मूल कारण एक स्त्री ही थी। सत्यवती के प्रति राजा शांतनु का विशेष मोह व प्रेम ने गंगा-पुत्र देवव्रत को आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत पालन करने के लिए विवश कर दिया। जिसके कारण गंगा- पुत्र सदा के लिए भिष्म पितामहा बन गए और यहीं से महाभारत युद्ध का शंखनाद हुआ।

इससे यह स्पष्ट होता है कि पौराणिक युग हो या आधुनिक, स्त्री अपने सशक्तिकरण से किसी भी समाज को उन्नति एवं अवनति किसी भी पथ पर ले जा सकती है। पुरूष तो मात्र एक मुखौटा होता है,असल शाशक स्त्री होती है। फिर भी स्त्री के प्रति हीन दृष्टिकोण अपनाया जाता है, इसका कारण भी स्त्री ही है। क्योंकि स्त्री ही स्त्री की सबसे बड़ी शत्रु होती है। पुरुषों में इतना साहस ही नहीं होता है की वे स्त्री के चरित्र पर प्रश्न करें, स्त्री ही स्त्री के चरित्र पर प्रश्नों के बाण चलाती है। यही कारण है की हमारा समाज “पुरुष प्रधान समाज” का आवरण मात्र धारण किया है, सत्य यह है कि एक स्त्री अन्य स्त्री से शत्रुता पूर्ति के लिए समाज को पुरुष प्रधान बनाती है।

यदि हम स्त्रियां अपने संतान के बाल्यावस्था से ही बेटियों के साथ-साथ बेटों को भी सही आचरण का ज्ञान दें तो हमारे बेटियों पर जो अत्याचार होतें हैं वे सब जड़ से समाप्त हो जाएंगे। परन्तु हम अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए स्वयं ही बेटा एवं बेटी में अंतर करते हैं।

स्त्री जब किसी पुरूष को अपने माता-पिता के प्रति कर्तव्यों को पूरा करते देखती है तो उसे श्रवण कुमार के नाम से पुरस्कृत करती है परन्तु जब वही पुरूष अपनी पत्नी की बातों को मानता है, पत्नी का सम्मान करता है, तब उसे जोरु का गुलाम जैसी संज्ञा प्रदान की जाती है। और पत्नी जो पति की बात मान रही है तो उसे पत्नी का कर्तव्य कहा जाता है तब उसे पति का गुलाम क्यों नहीं कहा जाता है?स्त्री का यह दोगला व्यवहार ही पुरूषों को स्त्री पर अत्याचार करने के लिए प्रेरित करता है।

यह स्पष्ट है की स्त्री अत्यंत ही सशक्त होती है। भावनात्मक, मानसिक एवं शारीरिक तीनों दृष्टिकोण से स्त्री अत्यंत ही सक्त होती है। क्योंकि एक चित्रकार भी अपनी चित्रकला पर अपना नाम अवश्य ही अंकित करता है, परन्तु एक स्त्री बेकार की परम्परा को अग्रसित करने के लिए अपनी ही रचना को अन्य का नाम प्रदान करती है। पुरुष के द्वारा स्त्री में बीज मात्र ही प्रवेश होता है, उसे जीवंत तो स्त्री ही करती है। उस बीज को अपने लहू से सींचती है, उसे मानव रूप देती है, नौ माह उसे अपने कोख में पालती है और अत्यंत पीड़ा सहन कर इस संसार में एक शिशु को लाती है जो स्त्री की स्वयं की रचना होती है। हम औरतें क्या करतीं हैं उस पर अपना अधिकार भी नहीं जताती हैं उसे पति का नाम अर्थात् पुरूष का नाम प्रदान कर देतीं हैं। इससे यही स्पष्ट होता है कि स्त्री के शक्ति के समक्ष पुरुष नगण्य मात्र है। शिव भी बिना शक्ति के शव मात्र हैं।

अतः स्त्री अपनी शक्ति का उचितमात्रा में उपयोग करे तो किसी भी पुरुष में इतना सामर्थ्य नहीं है कि वह स्त्री पर अत्याचार कर सके, यह साहस भी पुरुषों को हम औरतें हीं देतीं हैं।

अंततः किसी भी समाज की उन्नति का श्रेय स्त्री को ही जाता है और पतन का कारण भी स्त्री की ईर्ष्या, द्वेष, आक्रोश, लालसा ही होती है।
जोनाकी भट्टाचार्य

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