जैनाचार्य विद्यासागर जी एवं मूकमाटी

रोहित सेठ

भारतीय संत परंपरा में जैन आचार्य महाकवि आचार्य श्री विद्यासागर जी का विशिष्ट स्थान है। वह ऐसे संत हैं जिनका आभामंडल प्राणी मात्र को अपनी ओर आकर्षित करता है। यह सभी उनके तप, त्याग और ज्ञान का प्रतिफल है। आचार्य श्री जी का जन्म शरद पूर्णिमा की मध्य रात्रि को 10 अक्टूबर सन 1946 को कर्नाटक प्रांत के बेलगांव जिले के अंतर्गत सदलगा गांव में हुआ था। पिता श्री मल्लप्पा अष्टक एवं माता श्रीमती ने इस द्वितीय बालक का नाम विद्याधर रखा। बचपन में इनको सभी प्रेमवश पीलू और गिनी नाम से पुकारते थे।
कुल परंपरा के धार्मिक संस्कारों के साथ इनकी प्रारंभिक शिक्षा कन्नड़ माध्यम में हुई थी। कक्षा 9 तक की शिक्षा के पश्चात सन 1966 ईस्वी में आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज से ब्रह्मचर्य व्रत तथा 30 जून 1968 को 22 वर्ष की उम्र में गुरुवर आचार्य श्री ज्ञान सागर जी महाराज से जैनेश्वरी दीक्षा धारण करके वे हमेशा के लिए पदयात्री और करपात्री बन गए। अपने गुरु चरणों के कमल में विद्याधर से विद्यासागर बने। इस तपस्वी ने कठिन परिश्रम कर संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, कन्नड़, मराठी, बांग्ला, हिंदी, अंग्रेजी आदि अनेक भाषाओं का गहन अध्ययन किया एवं सभी भाषाओं में पारंगत हो गए। लगभग 4 वर्ष तक गुरु सेवा एवं ज्ञानार्जन में समय व्यतीत करने के पश्चात गुरुदेव ज्ञानसागर जी ने अपना अंतिम समय नजदीक जान 22 नवंबर, 1972 को अपना आचार्य पद त्याग कर मुनि विद्यासागर जी को आचार्य पद से अलंकृत किया। आजीवन नमक, गुड़, शक्कर, तेल, चटाई, सूखे मेवे का त्याग कर सभी प्रकार के भौतिक संसाधनों का त्याग करने वाले इस महान साधक ने अपने साथ-साथ पूरे परिवार को मोक्ष मार्ग की ओर अग्रसर कर दिया। गुरु की संलेखना करकर आचार्य विद्यासागर जी ने अनेक प्रांतो में पदविहार किया।
राष्ट्रीय विचारक संप्रेरक और संपोषक के रूप में प्रसिद्ध आचार्य श्री जी ने अपने विचारों से भारतीय संस्कृति के गौरव को बढ़ाया है। राजस्थान, उत्तर प्रदेश महाराष्ट्र, बिहार, बंगाल, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ आदि प्रदेशों की लगभग 50000 किलोमीटर की पद यात्रा कर राष्ट्रीय एवं मानवता की पहरेदारी में कदम कदम पर आदर्श को स्थापित किया है। आपकी अनेकांतीय स्यादवादमयी वाणी संप्रेरित करती है: भारत में भारतीय शिक्षा पद्धति लागू हो; अंग्रेजी नहीं, भारतीय भाषा में हो व्यवहार; विदेशी गुलामी का प्रतीक इंडिया नहीं; हमें गौरव का प्रतीक भारत नाम देश का चाहिए; नौकरी नहीं व्यवसाय करो; चिकित्सा व्यवसाय नहीं सेव है; स्वरोजगार को संबोधित करो; बैंकों के ब्रह्मजाल से बचो और बचाओ; खेती-बाड़ी सर्वश्रेष्ठ; हथकरघा स्वावलंबी बनने का सोपान; भारत की मर्यादा साड़ी; गौशालाएं जीवित कारखाना; मांस निर्यात देश पर कलंक; शत प्रतिशत मतदान हो; भारतीय प्रतिभाओं का पलायन रोका जाए इत्यादि। संस्कारित शिक्षा के लिए आपकी प्रेरणा से 500 से अधिक आवासीय बालिका विद्यालय “प्रतिभा स्थली” स्थापित किए गए जिन में जबलपुर (मध्य प्रदेश), डोंगरगढ़ (छत्तीसगढ़), रामटेक (महाराष्ट्र), इंदौर (मध्य प्रदेश), ललितपुर (उत्तर प्रदेश) मुख्य हैं। इसके अतिरिक्त जगह-जगह छात्रावास स्थापित किए गए जिसमें जयपुर, आगरा, हैदराबाद, जबलपुर आदि हैं। इनके गुरु आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज की शिक्षा स्थली श्री स्यादवाद महाविद्यालय वाराणसी का जीर्णोद्धार भी आपकी प्रेरणा एवं आशीर्वाद से हुआ है। आचार्य विद्यासागर महाराज के ही मार्गदर्शन से श्री स्यादवाद महाविद्यालय भी पुनः प्रगति की ओर अग्रसर हो गया है। आचार्य श्री जी की दूरदर्शिता ने जैन संस्कृति को हजारों हजारों साल तक जीवित बनाए रखने हेतु समाज के समक्ष पाषाण से निर्मित मंदिरों की शैली को ही अपनाने की बात कही। आचार्य भगवान के ऐतिहासिक सांस्कृतिक चिंतन से प्रभावित होकर उनकी प्रेरणा से अनेक स्थानों पर पाषाण के भव्य विशाल जिनालियों अर्थात मंदिरों का निर्माण किया जा रहा है जिनमें प्रमुख रूप से गोपालगंज, जिला सागर मध्य प्रदेश, सिलवानी, जिला रायसेन मध्य प्रदेश, तड़ा, जिला सागर मध्य प्रदेश नेमावर, जिला देवास, मध्य प्रदेश, तेंदूखेड़ा, जिला दमोह मध्य प्रदेश, रामटेक, जिला, नागपुर, महाराष्ट्र, विदिशा मध्य प्रदेश, नक्षत्र नगर जबलपुर, मध्य प्रदेश आदि प्रमुख है। प्राचीन ऐतिहासिक स्मारकों की परंपरा में आचार्य श्री की प्रेरणा एवं आशीर्वाद से 19 से अधिक स्थानों पर पाषाण निर्मित सहस्त्र कोटि कीर्ति स्तंभ जिनालयों के निर्माण का कार्य प्रारंभ हो चुका है। इसके अतिरिक्त आपकी प्रेरणा से भाग्योदय तीर्थ सागर आधुनिक सुविधाओं से संपन्न चिकित्सालय का निर्माण कराया गया। पुरातन आचार्य की भारतीय चिकित्सा प्रणाली आयुर्वेद को प्रोत्साहन देने के लिए आपकी प्रेरणा से जबलपुर में पूर्णायु आयुर्वेद महाविद्यालय की स्थापना की गई एवं अनेक स्थानों पर आयुर्वेदिक चिकित्सालियों का निर्माण कराया जा रहा है। आचार्य
श्री विद्यासागर जी कृत संपूर्ण साहित्य जगत का अमूल्य रत्न है, जिसमें साहित्य शब्द की सार्थकता को अक्षरशः रेखांकित किया गया है। चाहे प्रवचन साहित्य हो या महाकाव्य मूकमाटी चाहे स्फूट कविताएं हो या अनूदित साहित्य सभी में सृष्टि का सार, जीवन का सौंदर्य, मानवता का मर्म, संस्कृति की गरिमा, सभ्यता का गौरव, मुक्ति की प्रेरणा, तप और संयम का उत्कर्ष तथा जन जागरण का शंखनाद ध्वनित होता है। आपने नीति, धर्म, दर्शन, आध्यात्मिक विषयों पर संस्कृत भाषा में सात शतकों और हिंदी भाषा में 12 शतकों का सृजन किया है। जो पृथक एवं संयुक्त रूप से प्रकाशित हुए हैं।
आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज द्वारा रचित मूकमाटी महाकाव्य उनकी एक प्रसिद्ध एवं महत्वपूर्ण कृति है। कविता के रूप में एवं हिंदी भाषा में रचित यह रचना है। अधिकतर महाकाव्य में मनोरंजन की उपयोगिता रही है। कई महाकाव्य भाषा की दृष्टि से भी रचे गए हैं, परंतु इस महाकाव्य में प्रधानता इंद्रियों के विषय की ओर नहीं अपितु यह सांसारिक जीव कैसे सुखी हो सके व कैसे दुखों से ऊपर उठकर बच सके, इसको दर्शाया गया है। इसमें अमूर्त बिंबों का आश्रय लेकर मूर्त में अमूर्त की अनुभूति करने वाली यह काव्य कृति दर्शन एवं काव्य का समन्वित रूप है। उपादान व निमित्त आदि के दार्शनिक सिद्धांतों का सरलीकरण करते हुए मिट्टी की अनंत संभावनाओं को उकेरा गया है। मिट्टी की उपादान शक्ति, कुंभकार आदि के स्वरूप के माध्यम से अपने भव्य स्वरूप में मंगल कलश बनाकर प्रतिष्ठित होती है। इस कृति में आत्मा के परमात्मा बनने का दिशा बोध होता है। साथ ही आत्मा की वर्तमान दशा पर सम्यक विचार करते हुए उसे उत्तरोत्तर प्रगति पद पर ले जाने के उपाय भी सुझाए गए हैं। सरल भाषा में यह भी कहा जा सकता है कि इस महाकाव्य में माटी को आदर्श बनाकर कलश तक की यात्रा का वर्णन किया गया।
आपके व्यक्तित्व कृतित्व पर चार डिलीट, 30 से अधिक एचडी, 21 लघु शोध प्रबंध, आपके साहित्य पर 300 से अधिक समीक्षाएं, आपके ऊपर हजारों स्वतंत्र लेख तथा 100 से अधिक पूजा विधान, संस्तुतियों, पुस्तक आदि लिखी जा चुकी हैं। इस प्रकार महाकवि आचार्य विद्यासागर जी महाराज द्वारा रचित मूकमाटी हिंदी साहित्य का अकेला ऐसा काव्य है जो मुक्त छंद में लिखा गया है और जिसमें वे रूप भी निहित हैं जो परंपरा प्रणीत है। दिगंबर संत प्रकृति में विचरण करते हैं, प्रकृति का स्पर्श करते हैं, वे उसे अपनी ज्ञानेंद्रिय में संवेदन कर अभिव्यक्त करते हैं। देशाटन से जो अनुभव लोक सम्मेलन से जो भाषा जो प्रतीतियां, जो व्यंजन, जो राग विराग, जो संवाद प्रतिवाद होता रहा है, वह संतों की वाणी के द्वारा जन-जन तक प्रभावित होता रहा है। आचार्य श्री विद्यासागर जी का मूकमाटी महाकाव्य इसी वृहद अनुभूति की महासृष्टि है। एक वाक्य में इसे अनुभूति का महाकाव्य कहा जा सकता है। आचार्य श्री का व्यक्तित्व एवं सृजन चेतन दोनों विश्लेषकों के पते हैं। मौलिक काव्य साहित्य के अवलोकन के उपरांत उन्हें युग का श्रेष्ठतम संत कवि कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी। यह उनकी महान कवि परंपरा को उल्लेखित करने में सक्षम है।

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