आरती दुबे (कन्नौज लेखिका)
जीवन का हर लम्हा शनै: शनै: आखरी मंजिल के तरफ बढ़ता जा रहा है! उम्र का सूरज पल पल ढलता जा रहा है!फिर भी स्वार्थ की दरिया में उफान कम होने का नाम नहीं ले रहा है! मतलब परस्ती की तरक्की सुदा ज़िन्दगी में श्मशान जाने तक हर कोई खुद को खस्ताहाल वक्त में रह कर भी भविष्य के निर्माण में अनमोल जीवन के हर क्षण को व्यर्थ में गंवाकर निर्थकता के उस राह का मुसाफिर बन रहा है जिस पर केवल तन्हाई का पहरा है!जब तक जरूरत भर का साथ है हर कोई हाथ में थामे हाथ है! सब कोई अपना है! जरूरत पूरा होते ही अपना भी सपना है। बदलाव की बहसी हवा इतना प्रदूषित हो चुकी है की प्रबुद्ध समाज का हर प्राणी अप्रिय बाणी के साथ ही विवेक शून्य होता जा रहा है! कितनी विडम्बना है सच हर रोज आंखों के सामने हाय हल्लो करते मुस्कराते किसी न किसी प्रियजन को मुक्ती धाम तक ले जाते देखा जा रहा है!अश्कों की वर्षांत मे दिन रात भीगते प्रियजन अपने स्वजन को आखरी बिदाई देकर अहसान फरामोसी की उस कुर्सी पर बैठते है जहां से उनके सफर का इम्तिहान शुरू होता है। उनको भी उसी मंजिल पर जाना है जहां से स्वार्थ के बोझ को लिए अपनत्व के घनत्व वाली हवेली में पनाह पाया वह शख्स सब कुछ छोड़कर चला गया।इस भौतिकवादी संसार में परम्पराओं की चढ़ती बेल कभी महकती है कभी गमकती है कभी सिहरन पैदा कर देती है!जरा सोचिए जो गया क्या लेकर गया! सब कुछ यहीं छोड़कर गया!मगर जब तक जिन्दा था अहंकार के अन्धकार में अहमियत के दीपक को हवा देता रहा!मगर जाते जाते उस अपनी तकदीर के फंसाने को भी हमेशा के लिए गर्त कर गया!उसी अपने सपनो की हवेली में बेदखली का दंश अपभ्रन्स बनकर रह गया!चन्द दिन भी नहीं गुजरे इस मायावी संसार से रूखसत हुए सारी निशानी मिटा दी गयी!कभी शान से लटकती तस्वीर बेरहमी से हटा दी गयी!फिर भी हम आप कहते हैं सभी अपने है?वास्तविकता के धरातल पर वर्तमान की बदलती तस्वीर जिस विकृति भरे अपनों की पुस्तक में कालजई इबारत को तहरीर कर रही है उसके हर सफ़ा पर नुकसान नफा को वर्णित कर रही है!अब कहां रह गया सम्बन्ध!हर रिश्ता का हो रहा हैअनुबन्ध!सामाजिक कुरीतियां दिन रात सुरसा की तरह मुंह बाए सम्बृध समाज के भीतर अपनी धमक बढ़ाती जा रही है!भारतीय संस्कृति, भारतीय संस्कार, आचार, विचार, संयुक्त परिवार, ब्रत त्योहार, सब कुछ कल की बात बनकर रह गया!आचरण हिनता,उदंडता,नीचता,हर परिवार में पराकाष्ठा की सीमा को पार कर गया है।लाज लिहाज शालीनता इस सम्बृध समाज से दूरी बना लिया!आदर भाव वन्दन, अभिन्नदन, सात्विक सत्कार, ब्यविचार के आगोश में दम तोड दिया!नंगापन फुह णपना ,आचरण हीनता ,महानता की निशानी में तब्दील हो गया! झूठ क्लेश इस परिवेश का अमृत वाणी बन कर रह गया!मां बाप भाई बहन दुश्मनों की श्रृंखला का हिस्सा बन गये!इन्सानियत, आदमियत , वाहियात शब्द बन गये!
रिश्तों की नई फेहरिस्त में ससुराल भी कमाल का उन्माद पैदा कर रही है।जरा सोचिए क्या भारतीय परिवेश में इस तरह के रिश्तों का निवेश सर्वमान्य था, कभी नहीं! लेकिन समय के सागर में उठती उन्मादी लहरों ने सम्बन्धों की कश्ती पर लदी सार्वभौमिक संस्कृतियों के साथ वह सब कुछ डूबो दिया जिससे एक सुसंकृत समाज का उद्भव होता था! आज हर घर में फर्ज के सानिध्य में दर्द का रिश्ता पनप रहा है! इसका हर किसी को आभास है! सब कुछ रहने के बाद भी वैमनस्यता की परिपाटी के चलते घर घर में हो रहा उपवास है!आदमी के लालची स्वभाव ने बर्बादी का मंजर खुद पैदा करने का हर संसाधन स्वयं पैदा कर लिया है!बस सभी को वर्तमान में खुद का स्वाभिमान दिखाई दे रहा है! लेकिन कल की तन्हाई भरे जीवन का वह भयावह मंजर नजर नहीं आ रहा जिसकी कल्पना से सिहरन पैदा हो जाती है!आप कहीं हो किसी पोस्ट पर हो किसी भी नौकरी में हो किसी भी ओहदे पर हो एक बार इस समाज की सच्चाई को करीब से जानने के लिए एक बार किसी भी अनाथालय किसी भी वृद्धा आश्रम में जरूर चले जाएं दिल की धड़कन बढ़ जायेगी! दुनियां से विरक्ति हो जायेगी! अपनों का वह सच सामने आ जायेगा जिसकी चाहत में दिन रात धन लक्ष्मी को वन्धक बनाने में मशगूल होकर उस परम सत्ता के सन्देश को दरकिनार करते खुद को शहंशाह साबित करने के लिए स्वार्थी खेल का मोहरा बने व्यर्थ का जीवन गंवाते जाने की परम्परा हिस्सा बनते जा रहे हैं।
वक्त को पहचानिए कोई अपना नहीं! सब मृगतृष्णा है सब कुछ दिखावा है।—–!!